https://www.choptaplus.in/

Sociology of religion: स्पीरो ने धर्म को किस प्रकार परिभाषित किया है?

स्पीरों यह विश्वास करते है कि धर्म जैसी भिन्न तथा व्यापक घटना को संस्कृति में रहकर ही परिभाषित किया जा सकता है
 
स्पीरो ने धर्म को किस प्रकार परिभाषित किया
यह दुर्खीम के इस विचार को भी नहीं मानते कि धर्म 'अलौकिक वस्तु में विश्वास नहीं है।

 

 

Sociology of religion:     अन्य मानवशास्त्रियों से हटकर मैलफोर्ड स्पीरो ने धर्म को व्यापक रूप से परिभाषित किया है। उसके अनुसार धर्म के सांस्कृतिक मनोवैज्ञानिक दोनों ही आयाम है। उसने पवित्रता की अवधारणा की आलोचना की क्योंकि उसमें पवित्र नाम का कोई तत्त्व नहीं है जिसे समाज भी पवित्र समझे।

Sociology of religion:    यह दुर्खीम के इस विचार को भी नहीं मानते कि धर्म 'अलौकिक वस्तु में विश्वास नहीं है। अनेक सरल लोग प्रकृति और परालौकिक में अंतर नहीं करते हैं और कुछ धर्म जैसे बौद्ध परालौकिक वस्तुओं में विल्कुल विश्वास नहीं करते।

Sociology of religion:     स्पीरों यह विश्वास करते है कि धर्म जैसी भिन्न तथा व्यापक घटना को संस्कृति में रहकर ही परिभाषित किया जा सकता है और इसे उन्होंने परामानवीय वस्तु जो मानव को लाभ या हानि पहुँचाने की शक्ति रखता है' में विश्वास को धर्म कहा है।

Sociology of religion:    हालाँकि घेरावाड बौद्ध परालौकिक वस्तुओं में विश्वास नहीं करते परंतु इस धर्म के अनुयायी किसी न किसी परालौकिक वस्तु में विश्वास करते हैं जैसे बर्मा के नट। यहाँ तक कि बुद्ध को परामानव की श्रेणी में माना जा सकता है चूंकि उनकी पूप्त होती है और उन्हें साधारण व्यक्ति नहीं माना जाता।

Sociology of religion:    जूडियो ईसाई परंपरा में ईश्वर की अवधारणा है जिसका सार्वभौमिक होना आवश्यक नहीं है। जबकि तथ्य यह है कि बौद्ध धर्म के अनुयायी बुद्ध की शिक्षा का भी अनुसरण करते हैं जैसे ईसाई धर्म में प्रभु ईशू की शिक्षा का अनुसरण। यह भी विश्वास किया जाता है कि बुद्ध अपने अनुयायियों के कल्याण के लिए सकारात्मक प्रभाव डालते हैं।

धर्म की आध्यात्मिक अथवा परालौकिक प्रकृति के संदर्भ में मैलिनोव्सकी के विचारों से स्पीरो सहमत नहीं है तथा कई सार्वभौमिक धर्म का उदाहरण देते हैं जो इहलोक से जुड़े है जैसे कनफ्यूसी अथवा हिन्दुत्व के कुछ पक्ष।

परंतु परामानवीय वस्तु सार्वभौमिक रूप से एक माध्यम मानी जाती है, इनसे इहलोक अथवा परलोक के उद्देश्यों को पाया जा सकता है, परंतु संस्कृति किसे प्राथमिकता देती है उसका भी प्रभाव पड़ता है।

स्पीरो धर्म को एक सांस्कृतिक संस्था के रूप में मानते हैं तथा उसे परिभाषित करते हैं उनकी परिभाषा इस प्रकार है कि धर्म एक सस्था है जो सांस्कृतिक रूप से माने हुए परालौकिक मानवों की सांस्कृतिक प्रतिमानों से निर्धारित अंत क्रिया है। अधिकतर यह अंत क्रिया धार्मिक कृत्यों के रूप में दिखाई देती है तथा इसमें वो क्रियाएँ होती हैं जो परामानवीय वस्तुओं के मूल्य व्यवस्था से एकरूपता रखती है।

साथ ही ये विश्वास करने वाले मानवों के लाभ के लिए उसे प्रसन्न करने तथा शांत करने के लिए की जाती है। परामानवीय मानव संस्कृति के स्वीकृत तथ्य है तथा जो अपनी वैधता सामूहिक विश्वासों की व्यवस्था प्राप्त करते हैं।

स्पीरो ने धर्म के अस्तित्व को दो आधार पर बताया है पहला उस आधार की खोज करना जिन पर धार्मिक तथ्य सत्य माने जाते हैं तथा दूसरा परामानवीय मानव में विश्वास का आधार ढूँढ़ना। दूसरे शब्दों में ऐसा अस्तित्व क्यों है तथा इस विश्वास को क्या बनाए रखता है।

Rajasthan