भारत में ग्राम अध्ययन  (Village Studies in India) का वर्णन करें ।

गाँव को 'प्रामाणिक स्थानीय जीवनः के चरम परिचायक के रूप में देखा गया है
 
मेटकॉफ के अनुसार 'भारतीय ग्रामीण समाज कुछ गणतंत्रात्मक था

chopta plus:  इस लेख  में हम ग्रामीण अध्ययन के बारे में पढ़ेंगे। 1950 और 1960 के दौरान गाँवों का अध्ययन एक मुख्य विचारणीय विषय बना और इस शास्त्र की सवृद्धि और व्यवसायीकरण के दौरान कई विनिबंध और अभिपत्र प्रकाशित हुई।

मेटकॉफ के अनुसार 'भारतीय ग्रामीण समाज कुछ गणतंत्रात्मक था, उनके पास वह सब कुछ था, जिसकी उन्हें इच्छा थी और बाहरी संबंधों से वे लगभग असंपृक्त थे। वे वहाँ टिके रहे, जहाँ कुछ भी नहीं टिक सकता। एक के साथ दूसरा वंश आया, पीढ़ि‌याँ बदलती रही, एक आदोलन के बाद दूसरा आंदोलन आया, लेकिन ग्रामीण समुदाय वैसा ही रहा।

गाँव को 'प्रामाणिक स्थानीय जीवनः के चरम परिचायक के रूप में देखा गया है, यह एक ऐसा स्थान है जहाँ 'वास्तविक' भारत को देखा जा सकता है और यह समझा जा सकता है कि किस प्रकार स्थानीय लोग अपने संबंधों और विश्वास की प्रणाली को संगठित करते हैं।

जैसा कि आआंद्रे बेते लिखते हैं, 'गाँव केवल वह स्थान नहीं है जहाँ लोग रहते हैं, यह वह अभिकल्पना है जिसमें भारतीय सभ्यता के आधारभूत मूल्य दिखाई पड़ते हैं। प्रत्येक समौज की एक स्वनिर्मित संरचना होती है. जो उसकी परंपराओं से चली आ रही है। परंपराएँ' जिनका अध्ययन हमारी संस्कृति से सबंधित होता है।

संरकृति को मानव जीवन के उन गुणों का सूचक माना जाता है, जिनके आधार पर एक समूह एक विशिष्ट समूह बन जाता है और अन्य मानव समूहों से अलग देखा या अनुभव किया जाता है।

इस इकाई में गाँव के महत्त्व, रूपरेखा, गाँव की सामाजिक सरचना के अतर्गत जाति, वर्ग और लैगिक विभक्तीकरण का क्या प्रभाव पड़ता है, इसके विषय में विस्तार से अध्ययन किया गया है।